Menu
blogid : 7694 postid : 1131675

” अपना वतन ”

kushwaha
kushwaha
  • 162 Posts
  • 3241 Comments

” अपना वतन   ”

गतांक से आगे -७

——————–

नट- सुनो सुन्दरी बाँधो  रस्सी , शुरू किया जाये खेला , दिन भर करते मेहनत , मिलता नही एक भी धेला।

नटी- पहले प्रिये मैं कर लूँ थोड़ी साफ -सफाई , इसी राह गुजरेंगे स्वामी आत्मा नन्द ऐसी खबर है आयी।

नट- देश प्रिये सदा ही साधू संतो से हरा  भरा है।  फिर भी मौके – दर  – मौके खर पतवारों ने जम के इसे चरा है।

नटी- ये स्वामी नही ढोंगी -आडम्बरी , मुहँ से बरसते फूल ,  संतों को बातें प्यारी लागें , दुष्टन को जस काँटा  बबूल।

नट-जाओ  सामने उस दुकान देखो चढी कढाई , गरमा -गरम बन रही जलेबी ले आओ कलुआ की माई।

नटी- जलेबी नही पक रही पकती असहिष्णुता की खटाई , सदा भीगी सहिष्णुता चासनी ,मिठास फिर भी न आयी।

नट- दाल पुरानी चुक चुकी  हाइब्रिड की ये निशानी , सदियाँ कितनी बीत चुकीं हुए न अभी हिन्दुस्तानी।

नटी- सभी नही,  बोरे में एक -आध  होता  सड़ा, गला कटा आलू , जैसे चिड़िया घर में गीदड   संग रहते चिड़िया , शेर हाथी , भालू।

नट- सहिष्णुता  के धर बन्दूक कंधे , जलेबी देखो इतरायी , जीवन जिसमे पाया उसने भूल बैठा अपनी माई।

नटी – पावन मात्र  भूमि  अपनी , गंगा यमुना गहना, यहीं जियें यहीं मरें सदा वन्दे मातरम ही कहना।

नट- न कोई रहा न कोई रहेगा लाख बने कोई  सिकन्दर , भारत माँ के आदर्श सपूत गाँधी जी के  तीन बन्दर।

नटी-जलेबी सीधी कभी हो न सकेगी डालो कितने मंतर , सहिष्णुता की धरती है जग जानत आओ चलें  पोर बंदर।

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply