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अपनी बात – दो बूँद जिंदगी के
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मैं अपने को देख रहा हूँ, पास खड़े लोगों को देखता हूँ. समाज को देखता हूँ. देश देखता हूँ. विदेश देखता हूँ .देख सब रहा हूँ, फिर मैं मौन क्यों हूँ .क्या मेरे देखने की शक्ति क्षीण हो गयी है या मैं सुन नहीं सकता हूँ . विवेक समाप्त हो गया है. विचार समाप्त हो गए है . सब के प्रति मेरी उदासीनता क्यों है. क्या मैं कायर हूँ . ध्रतराष्ट्र हूँ . या भीष्म हूँ.
मुझे तो सब से अलग होना चाहिए. मैं उस भीड़ का हिस्सा क्यों बनू. जो अपना उपहास कराते हुए स्वयं उसमे शामिल है. क्या कभी आपने भी अपने बारे में विचार किया है. यदि हाँ तो अपने विचारों को बाहर आने दीजिए. घुटन से बाहर निकलिए. बहुत सुन्दर दुनिया है. आपकी बहुतों को जरूरत है. केवल स्नेह का एक स्पर्श ही देना है. देखिये उनके साथ साथ आपको कितनी सुखद अनुभूति होगी.
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
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