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मानसरोवर से मैं निकली गंगोत्री मेरा धाम
पाप धोएं पापी मुझमे फिर भी मैं निष्काम
प्रयास भगीरथ करके लाये धरा निज धाम
साठ सहस्त्र पुरखे तारे मोहे कहाँ विश्राम
चली नगर जब भर डगर बंजर उपजाऊ हो गए
छा गयी हरियाली जग में प्यासे मन हर्षित हो गये
माँ कहके जन जन पुकारे मुझको आरती करे सुबह शाम
कैसे दुश्मन इस धरा के मैला छोड़ रहे बेदाम
आये न लज्जा करें न सज्जा मति इनकी मारी है
काहे करते मैला मुझको ऐसी भी क्या लाचारी है
करोगे गर तुम अब भी मैला तेरे उपवन खाऊँगी
जहरीली तो मैं हो चुकी अब न बचूं मर जाउंगी
समय अभी है चेत जा मानव काहे को अपमान करे
माँ हूँ तेरी लाख सताए तू काहे का अभिमान करे
राजा बैठा करे न रक्षा संतन की अब बारी है
पूत कपूत भये अब तो लम्पट औ व्यभिचारी हैं
आओ सब मिल मोहे साफ़ करो मांग रही हूँ भिक्षा
माँ की ये हालत कर दी क्या यही मिली थी शिक्षा
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