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चुनाव में धनबल, बाहुबल का औचित्य (वाइल्ड कार्ड एंट्री )

kushwaha
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भौतिक  शास्त्र  में बल, दबाब की परिभाषा और इससे सम्बंधित कई सिद्धांत एवं प्रासंगिक उदाहरण दिए गए हैं . अगर बल न लगाया जाये तो कोई वस्तु गतिमान कैसे होगी. जड़ ही रहेगी तो जीवन ठहर जायेगा . इसी प्रकार आप जितना दवाब बनायेंगे प्रतिफल उतना ही दवाब आप को भी प्राप्त होगा. भले ही दवाब हमें भी मिले अगर सोफे में स्प्रिंग नीचे से ऊपर दवाब न दे तो बैठने में मजा ही क्या. भौतिक शास्त्र में बल से सम्बन्धी पच्चड का सिद्धांत है और राजनीति में पंक्चर का सिद्धांत है. दोनों उपादेयता एवं उपयोगिता के द्रष्टिकोण से अपने में महान हैं,

लक्ष्मी सर्वदा पूजयति

लगे रहो निष्काम

नहीं लक्ष्मी पास तो

बने न कोई काम.

धन और शक्ति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. चोली दामन का साथ है. अगर धन है तो उसको सुरक्षित रखने के लिए या अन्य कार्यों में प्रयोग कने हेतु शक्ति  चाहिए और शक्ति है पर धन नहीं है तो कठिनाई तो आएगी ही. पहले   के   जमाने   में   धन   का

स्थान  था  तो  पर इसका  महत्व  कम  था ; आत्म सम्मान मुख्य था. जीवन यापन के लिए धन हो , इतना ही काफी था, कवि महोदय ने इसे निम्न प्रकार व्यक्त किया है. ;-

गो धन, गज धन, बाज धन

सब रतन धन खान

जब आवे संतोष धन

सब धन धूरि सनन,

धन, शक्ति और आत्म सम्मान का एक छोटा सा उदहारण महाराणा प्रताप एवं सेठ भामाशाह का है .

आज बात ही कुछ दूसरी है. लगता है सब उलटा पुल्टा हो गया है. पहले एक जगत था , फिर कई जगत हुए , फिल्म जगत, अध्याम जगत आदि आदि.अब  मुख्य रूप से आर्थिक जगत दिखता है,

इसकी घुसपैठ हर क्षेत्र  में है. इस सम्बन्ध में ज्यादा प्रकाश डालने की मैं आवश्यकता नहीं समझता, यह स्वयं में इतना प्रकाशित है कि इसकी चका चौंध में सब व्यर्थ है. पहले के समय में धन अकेला था . कलियुग में अब उसके अवतार स्वरूप  दो धन देवता दिख रहें हैं. बाकी के अगर हैं या आने वाले हैं तो मुझे जानकारी नहीं है.

एक देवता सफ़ेद धन है तो दूसरा  काला धन. दोनों धनों के रंग रूप, गुण धर्म एक सामान हैं, अंतर इतना है कि पहले के ज़माने में धन ही था तो वो ही देवता, अच्छे, बुरे कार्यों में लगता था . आजकल सफ़ेद धन सुरक्षित रहता है. काला  धन अच्छे एवं बुरे दोनों कार्यों मे लगता है.

बहता केवल लाल रक्त ,

उजड़ता है किसी का आशियाना ,

सूनी होती है मांग किसी की ,

होती है खाली माँ की गोद.

हे भारत , हाये भारत ,

कैसे हो गए तेरे लोग

इतना धन है फिर भी कुपोषण , भुखमरी , बेरोजगारी, शोषण , न जाने क्या क्या.

अब बात आती है बल की. स्वस्थ और निरोगी शरीर किसको नहीं प्यारा. फिर अगर शरीर का ध्यान ठीक प्रकार से रखेंगे तो बल की प्राप्ति होगी. बल है तो उसका इस्तेमाल होगा. दिशा उसकी कोई भी हो सकती है.

अब बात आती है चुनाव में धनबल एवं बाहुबल की. ये दोनों एक सिक्के के दोनों पहलू हैं. बल धन को सुरक्षित रखता है और धन बल को. चुनाव का सन्दर्भ तो नाम मात्र का बहाना है. धन एवं बल का प्रयोग अनादिकाल से सर्वत्र एवं सदैव विद्यमान रहा है. इसके वर्चस्व को कोई कैसे नकार सकता है. पहले के ज़माने में धनी व्यक्ति एवं बली व्यक्ति को बराबर का सम्मान प्राप्त था. यदि धन और बल एक ही व्यक्ति के पास हो जाये तो सोने में सुहागा. लोग धन कमाने के साथ साथ अपने बच्चों को पहलवानी करवाने से चूकते नहीं थे. जगह जगह अखाड़े  होते थे. कुश्ती, दंगल का आयोजन होता था. धनवान लोग पहलवानों को बड़े बड़े पुरस्कार देते थे. प्रत्येक काल में मल्ल युद्ध इत्यादि  के महान योद्धा हुआ करते थे. कलियुग में भी देश विदेश में कुश्ती को सम्मानजनक स्थान प्राप्त है. और आज कल जिम का.

धनी एवं बली की जोड़ी सदैव साथ रही है. वर्तमान में धनी  महाधनी एवं बली  महाबली की पदवी से विभूषित हो गए हैं. महाबली का एक और नाम बहुत प्रचलित है – बाहूबली .

जब महाधनी चुनाव में उतरते हैं तो बाहुबली के चुनाव में उतरने पर क्या एतराज. दोनों के गुण एक ही से दिखते हैं , दोनों का पानी एक जैसा है. पानी बहता है तो कुछ न कुछ बहा ही ले जाता है और कुछ भी न हो तो किनारे तो काटता ही है. यदि महाबली होना अपराध है तो महाधनी होना अपराध क्यों नहीं. यदि गलत रस्ते से धन कमा कर महाधनी हुआ है तो भारतीय दंड संहिता एवं अन्य अपराध सम्बन्धी कानूनों मे पर्याप्त प्राविधान हैं. यही  स्थिति महाबली के लिए भी है. यदि शंका है तो स्पष्ट कानून क्यों नहीं बनाया जाता.

जब तक ये दोनों कानून द्वारा दण्डित नहीं हैं तो इन्हें भी वही अधिकार प्राप्त हैं , जो सामान्य जनों को. यदि ये कानून तोड़ते हैं तो दंड की व्यवस्था भी तो है. अब अपराध सिद्ध करने और दंड देने में विलम्ब हो तो इसके लिए इन लोगों को किस प्रकार जिम्मेदार माना जा सकता है. ये तो राजा  का प्रथम कर्त्तव्य एवं दायित्व है कि वह सुशासन हेतु अतिशीघ्र न्याय प्रदान करे और समाज को शांति के साथ जीने दे. अपने लाभ के लिए इन लोगों के प्रति बार बार अलग अलग व्याख्या देने की आवश्यकता क्या. जिन पर दोष सिद्ध हो चुका  है , उसके लिए चुनाव आयोग कठोर निर्णय लेकर , उन्हें चुनाव नहीं लड़ने दे रहा है.

भारत में चुनाव में सदैव भारी पैमाने पर धन एवं बल का प्रयोग हुआ है, चाहे भूतपूर्व या आज के सम्मानित  राजनीतिज्ञ  हों. ये बात किसी से छिपी नहीं है. धनी एवं बलिओं द्वारा अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए प्रत्येक प्रकार के हथकंडे अपनाये जाते रहे हैं और उसमे भरपूर सहयोग स्थानीय जनता का भी मिला है. चुनाव में जिन लोगों के लिए प्रचार , मतदान के समय, परिणाम घोषित होने के समय एवं बाद तक आपस में न जाने  कितना रक्त बहाते हैं, जान लेते हैं और देते भी हैं पर उसके स्थान पर क्या पाते हैं सिवाय चन्द रुपये , शराब, हथियार , वाहन. किसके लिए इनकी निष्ठां होती है. जीतने के बाद वे दल बदल कर केवल अपने स्वार्थ की  पूर्ति में रत हो जाते हैं. जनता वहीँ की वहीँ रह जाती है. हर बार ऐसा ही होता है. इसमें गलती किसकी है, क्यों होते हैं हम उनके लिए इस्तेमाल. माना कि भावावेश में हम उनके प्रति निष्ठां रखते हैं , पर उनकी निष्ठां किसके प्रति रहती है? जो अपनों का नहीं हुआ वो दूसरों का कैसे हो सकता है, फिर राष्ट्र की बात तो जाने दीजिये. जनता की भी मजबूरी है. मजबूरी में भी वोट करना पड़ता है. चुनाव आयोग कटिबद्ध रहता है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान हो. पर स्थानीय परिस्थतियाँ जनता को मजबूर करती हैं कि वे धनी एवं बलियों को वोट दे क्यों कि परिणाम  आने  के बाद तो रहना उसी क्षेत्र में है.

जहाँ तक प्रश्न चुनाव में धनबल एवं बाहुबल का है, इसकी आवश्यकता मैं नहीं समझता. लोकतंत्र में इसका प्रयोग सर्वथा अनुचित एवं अनैतिक है. जनता दोनों ही प्रकार के लोगों को भली भांति जानती है. कानून भी जानता है. अन्यथा जिनको बाहुबली कहा जाता है वे चुनाव नहीं लड़ पाते. यदि इन बलों को रोकना है तो स्पष्ट कानून बनाना होगा. जल्दी फैसला देना होगा. यह भली प्रकार सबको पता है कि समाज सेवा मात्र आवरण रह गया है . अगर ऐसा न होता तो बगैर पद के भी व्यक्ति सेवा कर सकता है, भले ही वो देश सेवा ही क्यों न हो. जानता के बीच अगर सच्चे ह्रदय से सदगुणों के साथ बगैर किसी भी प्रकार के भेद भाव के साथ सेवा प्रदान की जाये तो व्यक्ति के गुणों एवं उसके द्वारा की गई सेवा के आधार पर न्यूनतम खर्च पर वह चुनाव जीत सकता है और एक सही व्यक्ति स्वयं चुन कर राष्ट्र की वास्तविक सेवा कर सकता है.

देश सेवा अब उद्योग बन गई है. चुनाव नहीं होता टेंडर पड़ता है, आश्वासनों एवं न पूरे किये जा सकने वाले वादों के. जनता बिना समझे सोचे टेंडर  स्वीकृत कर देती है अपने ताबूतों का और आसमान की ओर ताका करती है एक बूँद पानी को. बगैर पद के अब कोई सेवा ही नहीं करना चाहता. कितना परिवर्तन आ गया है आदमी में.

जीविकोपार्जन के तमाम साधन हैं . क्या कोई जरूरी है कि समाज सेवा, देश सेवा के लिए कोई मूल्य लिया जाये. . अगर परिस्थितियां ऐसी हों कि जीविकोपार्जन हेतु यही सहारा हो तो कोई इनकार नहीं है पर सूखी हड्डियों  को तो न निचोड़ा  जाये. पर जैसा आचरण इन दिनों इन महानुभावों द्वारा प्रदर्शित किया गया है ओर किया जा रहा है वह राष्ट्र के लिए कलंक नहीं क्या.

भाग्य की विडंबना ही तो है कि महाधनियों में दुबारा भामाशाह क्यों नहीं और महाबलियों में राजा बली क्यों नहीं समाज के सामने आते.

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