kushwaha
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चंद लफ्जों में दुनिया के फसाने ढूँढ़ते हैं
एक लम्हे में जिंदगानी ढूँढ़ते हैं
ज़हर पीना है तो साकी की ज़रुरत क्यों
अपने ही कम हैं क्या नश्तर लगाने में
चाहते हैं रुखसती इस दुनिया से जाने को
फिर भी जीने के बहाने ढूड़ते हैं
चंद लफ्जों में दुनिया के फसाने ढूँढ़ते हैं
एक लम्हे में जिंदगानी ढूँढ़ते हैं
चाहतें उनकी रोज नये रंग लाती है
कभी ख़ुशी और कभी गम दे जाती है
फिर भी किसी न किसी तरह उन्हें
पास बुलाने के बहाने ढूड़ते हैं
चंद लफ्जों में दुनिया के फसाने ढूँढ़ते हैं
एक लम्हे में जिंदगानी ढूँढ़ते हैं
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